Wednesday, 3 June 2015

|| मेहमान चंद घडी का ||

|| मेहमान चंद घडी का ||
××××××××××××××××
था जब बचपन
लगते थे सभी अपने
होश संभाला जब
घेर लिया है शक ने..!!


देखने लगा सबको
मतलब की निगाहो से
गिरने लगा अक्सर
अपने ही निगाहो से..!!

भेद भाव करता रहा
ये अपने वो पराये..
लेता कभी दुवाए
कभी किसी की बलाये..!!

निकाला जब जनाजा
तब जाके जाना..
दो घडी का साथ था
पल भर का ठिकाना..!!

ना कोई अपने थे
ना ही कोई पराये थे..
मेहमान हम खुद थे
सब पहुचाने आये थे..!!
****सुनिल पवार....

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